Monday, June 8, 2015

दिल धड़कने दो: पारिवारिक फिल्म कैसे??

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जब मै छोटा था, या उसके बाद, या अभी भी, मै किसी अमीर मोहल्ले से गुजरते हुए सोचता था या हूँ की क्या चलता है इन घरो में. कैसी जिन्दगी जीते है ये लोग? लेकिन इन घरो की दीवारे इतनी ऊँची होती है की देख पाना बड़ा मुश्किल है.
"दिल धडकने दो" में जोया अख्तर जी ने ये दीवार नीचे कर दी है और दिखाया की दीवार के उस तरफ के लोग कैसे होते है.उनकी जरूरते और अंदाज बेशक अलग है लेकिन एहसास इंसानी ही है. यहाँ भी 'परिवार' ही बसता है. बस गलतियाँ करने की 'औकात' ज्यादे है. 
परिवार या पारिवारिक फिल्म का तीन मतलब हम जानते है. एक हृषिकेश मुखर्जी की फिल्मे जहाँ आम आदमी का परिवार रहता है. दूसरी यश जौहर और यश चोपड़ा का परिवार जहाँ ख़ास इंसानो का परिवार रहता है. यहाँ के एहसास महंगे सूट और आलिशान बंगले की तरह ही है. नपे-तुले-जरुरत-भर स्क्रिप्ट के हिसाब से. यहाँ कुर्सी पर कुर्सी की तरह बैठना होता है. यहाँ फालतू बाते खर्च नहीं की जाती. क्योकि यहाँ खर्च करने से ज्यादे कमाना जरुरी है. हृषिकेश मुखर्जी की फिल्मो में जैसे मानो हम किसी घर में खिड़की से झाँक रहे हो, और यशराज फिल्म्स में दीवार चढ़ के. और तीसरी बडजात्या फिल्म्स जो पारिवारिक फिल्म से ज्यादे संस्कारिक फिल्मे है.
""दिल धड़कने दो" इन के बीच की फिल्म है. महंगे आउटफिट में देसी इमोशन.
यहाँ पारिवारिक फिल्म का मतलब परिवार और उसके सदस्यों के पारस्परिक संबंधो से है. चाहे वो स्कर्ट पहन के हो या साड़ी. जोर संबंधो पर है.
एक परिवार है. बेटी है जो बिजनेस आगे ले जा सकती है. बेटा है जो उसको आगे नहीं ले जा सकता. बाप है जिसने मेहनत करके बिजनेस खड़ा किया है और एक माँ है जो कभी इन तीनो में तो कभी खुद में अपना वजूद तलाशती है. माँ संस्कारी है जो रिश्तों को सहकर निभाने में यकीन रखती है, बेटी अपने को प्रूव करने में रिश्तों को नहीं आने देती. अब आप पूछेंगे इसमें नया क्या है?
नया है क्रूज, एक कुत्ते का सूत्रधार बनना. कपड़े, डिजाइन, सीन्स.
लेकिन फिल्म की कुछ बाते है जिससे हम सिनेमा हाल से बाहर आते हुए कहते है 'वन टाइम वाच'!!
- एक जानवर हमें बताता है की हम उससे किस तरह अलग है. लेकिन कभी कभी ये अलग होना हमें बेहतर नहीं बनाता. जैसे हम बात कर सकते है. इसलिए हम बात का बतंगड़ भी बना सकते है. सबसे बड़ी बात की हम बात करके भी अपनी बात नहीं बता पाते. कभी जब बोलना जरुरी है तो हम नहीं बोलते और बोल देते है जब नहीं बोलना होता. तो इन्सान को बोलने का वरदान देने के साथ साथ भगवान ने इसे इस्तमाल करने वाली टेक्नोलोजी का साफ्टवेयर अपडेट ही नहीं किया. तो हम इसे अपने तरीके से बरबाद करते हैं. और सबसे ज्यादे रिश्ते भी इसी वजह से.
- जोया अख्तर की अच्छी बात ये है की वो भाई-बहन के रिश्ते जो जरुर दिखाती है. जो की नया है. बहुत कम फिल्मे है जो सिर्फ भाई-बहन या भाई-भाई के रिश्ते पर बनी हो. मेरा मतलब अच्छी फिल्मो से है. जोया ने ये जिया है इसलिए उनके लिए आसान भी है. अच्छा भी लगता हैं.
- किरदारों के कंफुजन में एक क्लैरिटी है. जिससे हम कन्फ्यूज नहीं होते.
-संवाद अच्छे है. कुत्ते की हर बात में दम है. वास्तव में उसकी बात जोया अख्तर की बात है जिससे वो कहना चाहती है की उन्होंने ये फिल्म क्यों बनायीं.
फिल्म जितनी लम्बी है उससे ज्यादे लम्बी लगती है. लेकिन जॉय राइड होने की वजह से हम बोर कम ही होते है. सारे किरदारों ने अच्छा काम किया है.
अंत में यही कहूँगा की कहानी, पात्र, थीम सब पुराने है लेकिन मैसेज हिडेन है!! 

Wednesday, June 3, 2015

Tanu Weds Manu Returns: "Wa dekh kabooter"


tanu

जैसे भूकंप के झटके के थोड़े से अनुभव मात्र से हम बाहर भागते है और फेसबुक पर अपडेट करते है, ठीक उसी तरह लोग तनु वेड्स मनु रिटर्न्स को देखने सिनेमा हाल की तरफ भाग रहे है और फेसबुक पर अपडेट कर रहे है. ये एक अपने आप में अनोखी फिल्म है जिसे लोग देख भी रहे है और और उससे भी ज्यादे की बता भी रहे है की वो देख रहे है. आखिर ऐसा क्या है इसमें !! आईये समझते है:-

राज कपूर से लेकर ऋषि कपूर, राजेंद्र कुमार इत्यादि ने प्यार को बड़े बेसिक तरीके से हमें बताया. एक पेड़ है. हरा भरा मैदान है. शालीन पहनावा है. दो 'व्यक्तित्व' है. और उनके बीच प्यार है. जो होता है किया नहीं गाया है. इन्होने हमें यही बताया की प्यार ‘होता’ है.

जब यश चोपड़ा और यश जौहर जी आये तो उन्होंने प्यार को मेलोडीयस बना दिया. (ये DDLJ के बाद का समय था) . प्यार में चार्म आ गया. उन्होंने बताया प्यार तब होता है जब लेडिज दुपट्टा हीरो के चेहरे पर आता है. सरसों के खेत काफी वैज्ञानिक प्रभाव छोड़ते है प्यार के क्रियान्वयन पर. प्यार की मात्रा में बढ़ोत्तरी करनी हो तो स्विट्ज़रलैंड या पेरिस की लोकेशन होनी चाहिए. इन लोगो ने बताया की प्यार का होना तो ठीक लेकिन अगर आप धृष्ट है, बास्केटबाल खेलना जानते है, स्टड है, तो प्यार ‘किया’ भी जाता है. इस प्रकार इन्होने प्यार को संज्ञा से क्रिया बना दिया.

इसी दौरान दूसरी तरफ भट्ट कैम्प के लोग दिन रात अपनी सिनेमा की प्रयोगशाला में प्यार की दिशा में नयी खोज के लिए प्रयासरत थे. मेहनत रंग लायी और फिर रिलीज हुई फिल्म- कसूर. आफ़ताब शिव दासानी और लज्जा रे अभिनीत ये फिल्म भट्ट कैम्प के अनवरत प्रयासो का रिजल्ट थी. इनकी खोज ये थी की मानव शरीर में प्यार, सेक्स के हारमोंस के श्राव से होता है. और ये हारमोंस प्रवाहित नहीं होते बल्कि फ़ौवारे की तरह श्रावित होते है और प्यार में हर प्रकार के दुसरे मानको के प्रभाव को निश्रिय कर देते हैं. और इस प्रकार ६ पैक एब्स और गठीले शरीर के युवको, आईरिस मोबाइल की तरह स्लिम-ट्रिम-सेक्सी युवतियों के साथ साथ शिलाजीत कम्पनी के निर्माताओं के मनोबल को बल मिल गया. जिम की मशीनों की जंग छूटनी शुरू हो गयी. और प्यार अपनी नयी दिशा में अग्रसर हो चला.  और सम्भोग ने बेडरूम से ड्राइंग रूम तक का सफ़र तय कर दिया.
यहाँ प्यार की ‘क्रिया’ को सेक्स के ‘विशेषण’ के साथ जोड़ दिया गया. अद्भुत प्रयोग था यह.

इस प्रकार उपरोक्त दोनों प्रयोगों से एक फार्मूला तैयार हुआ जो इस प्रकार है-


X+(Y-Z)+(5*A)+ 2*I+ D*H= SUCCESS
SUCCESS+C= SUCCESS GUARANTEED


[WHERE, Smart six-pack-abs hero six feet tall= X, Sexy heroin= Y, Cloths= Z, Foreign Locations = A, Item Song = I, Dirty Words= D, Dialogue = H, Comedy = C]
और फिर इस प्रकार फार्मूला बेस्ड फिल्मो का निर्माण कार्य प्रगति पर हो चला. कई निर्देशक, निर्माताओं के साथ आये और अनगिनत फिल्मो का निर्माण कर डाला.
इसका नुकसान ये हुआ की विलेन का काम ख़त्म हो गया और प्यार दिशा विहीन हो गया. साथ ही साथ प्यार ‘करने’ वाले भी.

इस बीच अगर आपको वापस वही मिट्टी की खुशबु वाला बेसिक प्यार देखने को मिले, तो अच्छा लगता है. प्यार जो अदरक की तरह दिखने वाले को भी हो सकता है, प्यार जो कानपूर की बिजली के तारो से भरी गलियों और हरियाणा के गाँव के किसी घर की छत पर रखे खटिया के ऊपर बिछाए सामियाना के गद्दे पर भी होता है. प्यार में यहाँ हम अपने लोगो से घिरे हुए है. यहाँ सिर्फ इन्सान है, उनके एहसास है, माँ-बाप है, दोस्त है, इंसानी रिश्ते है और बाकी सब बेमानी है. यहाँ प्यार हो रहा होता है! कंभी कभी तो पता भी नहीं चलता.  यहाँ प्यार एक संबोधन है. जो रिश्तो को पुकारने की तरह है.

प्यार के अलावा जो चीज मुझे अच्छी लगी वो थी कुसुम सांगवान के रूप में महिला सशक्तिकरण का वास्तविक दर्शन. जो तनु के महिला सशक्तिकरण से अलग है. कौन सा सशक्तिकरण वास्तविक है वो उस सीन में ही देखा जा सकता है जब वो पहली बार आमने सामने आती है. सिर्फ एक छोटे से दृश्य और संवाद में महिला सशक्तिकरण से जुडी सारी भ्रान्तिया तोड़ वास्तविकता सामने ला दिया है आनंद जी ने.
तनु वेड्स मनु, रान्झाना और फिर तनु वेड्स मनु रिटर्न्स- एक तो इंसानी एहसास वैसे ही बिखरे हुए होते है, उसपर से उनपर फिल्म बनाना, फिर किरदारों को बढ़ा कर और बिखेर देना, और फिर एक धागे में समेट लेना.- आनद आप ग़जब हो!
और कंगना आप ग़जब हो गयी हो!!
और माधवन: एक ठहरे हुए चेहरे पर तरह तरह के गहरे भाव देना और पूरी दो फिल्मो में ऐसे किरदार से एक बार भी बाहर ना निकलना, आसान नहीं होता. और जहाँ तक सहायक किरदारों का सवाल है उसके लिए तो एक अलग पोस्ट लिखनी पड़ेगी. वे तो जान है फिल्म की.

इस फिल्म ने जैसे फार्मूला फिल्म वालो से मानो कह दिया हो, "वा देख कबूतर!!"

[हाल ये है की अगर आनंद ने तनु वेड्स मनु ३ बना दी तो सारी कमाई फिल्म ट्रेलर  में ही कमा लेगी.]