Friday, June 22, 2012

Gangs of Wasseypur



मै इस फिल्म को चार बातों से देखना चाहूँगा- cinematography, subject, characterization  और manoj bajpeyi
Cinematography - की बात करे तो शुरू के दृश्य और उनके रंग गजब के है. गहरी नीली बारिश में झोपडियो में लगी पीले-लाल रंग की आग का दृश्य,  शाहिद का कोयले मिल में बारिश में पहलवान को मारने का दृश्य,  नदी में नाव का दृश्य जो एक पेंटिंग की तरह लगती है, सरदार के घर के अंदर प्रयुक्त की गयी लाइटिंग इत्यादि. अच्छे दृश्य फिल्म को गहरा बनाते है...बिना एक शब्द कहे बहुत सी बाते कहने और दर्शको को फिल्म के साथ जोड़ने में सहायक होते है. और इस फिल्म में ऐसे दृश्य आपको काफी देखने को मिलेंगे जो आपकी आँखों को अच्छे लगेंगे और आपके दिल में उतर जायेंगे.
subject-
अगर फिल्म के निर्देशक अनुराग कश्यप, तिग्मांशु धुलिया, दिबाकर बनर्जी या विशाल भारद्वाज हो तो फिल्म की कथावस्तु का अपना महत्त्व होता है. फूहड़ फिल्मो के बीच जो  वास्तविक सिनेमा उभर रहा है इसको आगे बढ़ाने वाले यही निर्देशक है. फिल्म धनबाद के वासेपुर कस्बे की है. जहाँ जिले का विधायक और वहाँ के एक गुंडे के बीच टकराव होता है. चूँकि ये टकराव, वर्षों से चली आ रही है आपसी रंजिश का नतीजा है इसलिए फिल्म को आजादी से पहले से दिखाया गया है. और फिल्म लंबी न हो जाए इसलिए नरेसन का इस्तेमाल किया गया है जो की पियूष मिश्रा की आवाज में है. साथ ही साथ फिल्म में आजादी के पहले और आजादी के बाद वासेपुर का धनबाद में मिलना, वहाँ के कोयले खाद्यानो का निजी हाथो में जाना, फिर राष्ट्रीयकरण होने के बाद कोल इंडिया का आधिपत्य होना और इन सबमे बाहुबली, ठेकेदार और नेताओ का बदलता हुआ किरदार इत्यादि दिखाया गया है. जैसे बताया गया है की अंग्रेज मजदूरो से काम तो कराते थे लेकिन उनके रहने के लिए छत का जुगाड भी किया करते थे जो ठेकेदारों के हाथो में आते ही छीन गयी.
चूँकि फिल्म इतने सारे विषयों को साथ लेकर चलती है इसलिए कथा वस्तु भी बड़ी हो जाती है. और यहाँ मुझे अनुराग कश्यप का मनोज बाजपेयी के किरदार और उसके बच्चों के प्रेम प्रसंग पे जरुरत से ज्यादे जोर देना सही नहीं लगा. इसके बदले उन्हें माफिया तंत्र को और गहराई तथा विस्तार से दिखाना चाहिए था. कुछ दृश्य सिर्फ अच्छे बनाने के लिए लंबे खींचे गए है. जैसे मनोज बाजपेयी का बंगालन के साथ के दृश्य. अगर ये दृश्य छोटे और काम्पेक्ट होते तो ज्यादे बेहतर होते. फिल्म के दृश्य में मज़ा तो आता है लेकिन कहानी कही छूटती जाती है.
Characterization-
  हर किरदार अपनी जगह मुनासिब है. कोई भी ऐसा किरदार नहीं है जिसने अपने काम के साथ न्याय नहीं किया. हां पियूष मिश्रा के किरदार में ज्यादे संभावनाए नहीं दी गयी है. नवाजुद्दीन सिद्दकी का किरदार शायद दूसरी किश्त में उभरेगा. सुल्तान की किरदार में त्रिपाठी और रीमा सेन [बंगालन] और ऋचा चड्ढा से अनुराग ने गजब का काम लिया है. खास तौर से नगमा के रोल में ऋचा चड्ढा का. जयदीप अहलावत [शहीद खान] का किरदार कई मोड लेता है और जयदीप बिलकुल साथ साथ मुड़ते जाते है. जैसे एक दृश्य में वो रामधीन सिंह के कहने पर एक अच्छे नौकर [पहलवान] की तरह मजदूरो को डांट-मार कर वापस काम पर लगा देते है. और फिर अपने मालिक को देखकर जो भाव अपने चेहरे पर लाते है उससे उनकी अंदर की जटिल नियत तक साफ़ पता चल जाती है जो ठीक उस पल लिए गए बड़े निर्णय से पनपा है.
मनोज बाजपेयी-
फिल्म के हीरो है सरदार खान [मनोज बाजपेयी]. भाव भंगिमाए, चलने और खड़े होने का तरीका और रुक रुक कर बोलने का वो अंदाज....बेहतरीन. जैसे राकस्टार में रणबीर एक पल के लिए भी अपने रोल से बाहर नहीं आते ठीक वैसे ही मनोज बाजपेयी भी सरदार से कभी बाहर नहीं आते. औरत के साथ कमीनेपन का रोल हो, या हवस में डूबे मर्दानगी की धौंस जमाये पति का...बाजपेयी कमाल करते है. वैसे दाद देनी होगी अनुराग कश्यप की जिन्होंने सरदार का किरदार गढा. सरदार अपनी पत्नी के लिए एक सनकी 'मर्द' है जिसे अपनी पत्नी के पेट का बच्चा सेक्स में रूकावट की तरह लगता है लेकिन वही सरदार अपने दुश्मनों के लिए चौकन्ना और निडर है. वो बदले की आग में जल तो रहा है, लेकि उसका बदला लेना मात्र अपने अंदर की आग को निकलना नहीं बल्कि एक सोची समझी रणनीति के तहत बुझाना है. अपने रिश्तों के लिए ही उसमे अहसास की कई परते है. वो बच्चे को गोली लगने के बाद भी सिर्फ इसलिए मारता है क्योकि बच्चा कह रहा है की उसे कुछ नहीं हुआ, जबकि बाप होने के नाते उसे पता है की दर्द हो रहा होगा और उसे उसके सामने छिपा नहीं सकता. मनोज बाजपेयी में बहुत संभावनाए है...लेकिन उन संभावनाओं में विस्तार भी है, ये इस फिल्म को देख कर पता चलता है.

फिल्म में ज्यादेतर गाने लोक संगीत है जो फिल्म के ट्रीटमेंट को वास्तविक बनाते है. संवाद बेहतरीन है लेकिन अगर आप राम गोपाल वर्मा की फिल्मो से तुलना करे तो उतने गहरे नहीं है. रामगोपाल वर्मा अपनी फिल्मो में कम से कम शब्दों में ज्यादे बाते कह डालते है. फिल्म के संवाद तालियाँ बटोरने वाले है, सुनकर मजा आता है लेकिन कभी कभी इसकी वजह से एक दृश्य को दिखाने के लिए ज्यादे बात कहनी पड़ रही है.

गैंग ऑफ वासेपुर का इंटरवल के पहले का ट्रीटमेंट गजब है. इंटरवल के बाद फिल्म कुछ जगहों पर धीमी हो जाती है. मनोज बाजपेयी को करेक्टर लेस दिखाने के लिए बहुत सारे सीन और वास्तविक बनाने के लिए कुछ ज्यादे ही गालियाँ खर्च की गयी है. मुझे लगा माफिया तंत्र के बारे में कुछ जानने को मिलेगा लेकिन फिल्म में Characterization पर ज्यादे ध्यान दिया गया है. कुछ अच्छे संवाद और सीन्स डालने के चक्कर में कहानी कभी ढीली लगने लगती है. फिल्म कम्पैक्ट नहीं लगती जैसा की फिल्म की शुरुवात को देख कर लगता है.

जहाँ तक फिल्म का एक ट्रेंडसेटर होने की बात है..उससे मै इत्तेफाक नहीं रखता. मेरा मानना है की मुंबई फिल्म जगत कई स्कूल्स में बटा हुआ है. जहाँ अनुराग कश्यप, विशाल भरद्वाज, दिबाकर बनर्जी या राजकुमार हिरानी किसी फिल्म का इंतजार नहीं करते बल्कि वो हमेशा सार्थक फिल्मे बनाने के पक्ष में है. जबकि ट्रेंड सेट करना तो वो हुआ जब रोहित सेट्टी, फराह खान और साजिद खान जैसे निर्देशक ऐसी फिल्मे बनानी शुरू कर दे....जो की होने से रहा.
[फिल्म के बारे में कुछ भी कहना सिर्फ एक नजरिया है.और एक फिल्म में बहुत सारे नजरिये होते है. मै चाहूँगा की आप अपने नज़रिए से एक बार फिल्म को देखे और अपनी बात शेयर करे. जहाँ तक रही बात फिल्म के देखने या न देखने की  तो अगर आप सिंघम, और हाउसफुल के लिए पैसे खर्च कर सकते है तो गैंग ऑफ वासेपुर कही से भी बुरी नहीं है.]

Friday, June 15, 2012

What is the solution???



शंघाई देखी! कैसी लगी ये सोचने से ज्यादे जरुरी सवाल है की फिल्म किसके लिए बनायीं गयी है? और जिसके लिए बनायीं वहाँ तक पहुचेगी?? जिन गरीबो के सवाल उठाती है वो देखने से रहे. नेताओ और कारपोरेट का जो नेक्सस है उससे उनपर फर्क पड़ने से रहा. मिडिल क्लास में जो इंटेलेक्चुअल क्लास है वो इस फिल्म को देख संवेदनशील हो जायेगा फिर अगली फिल्म का इंतज़ार करेगा संवेदनशील होने के लिए. और बाकी का मिडिल क्लास शायद देखना पसंद नहीं करेगा. क्योकि फिल्म मनोरंजन नहीं देती. [दिबाकर बनर्जी ने बैकग्राउंड म्यूजिक का कुछ खास उपयोग क्यों नहीं किया ये समझ नहीं आया] फिल्म स्लो भी है. [शायद इसलिए की दर्शक उलझे किरदार को समझ सके और उनके साथ चल सके]

मुझे फिल्म सही लगी क्योकि ये दिखाती है की समस्याएं अपना समाधान खो चुकी है. एक समस्या का समाधान दूसरी समस्या है. राजनीती की बात करे तो मनुष्य के चरित्र को सत्ता के चरित्र ने पीछे छोड़ दिया है.सत्ता पर कोई भी हो, फर्क नहीं पड़ता. कारपोरेट की बात करे बात सिर्फ और सिर्फ लाभ-हानि तक सिमित है. इसमें अगर देश या जनता आड़े आयेंगे तो उन्हें दरकिनार कर दिया जायेगा...अगर नहीं कर पाए तो अपने मुताबिक मोड लिया जायेगा.

फिल्म में जर्नलिज्म को एक तरह से परदे के पीछे ही रहने दिया गया है.

फिल्म एक स्थूल प्रभाव छोडती है. समाधान कुछ भी नहीं है. समस्याए बहुत बड़ी है. और गहरी भी. लेकिन यही सच्चाई भी है. और सच्चाई कड़वी होती है. इसलिए फिल्म भी कड़वी लग सकती है.

अभय देओल अच्छा अभिनय करने के लिए जाने जाते है, इसलिए उनकी तारीफ़ कम होती है. इमरान हाशमी कुछ हटकर आये है,और दुरुस्त भी है. प्रोसेन्न्जित चटर्जी प्रभावित करते है.