मुझे फिल्म सही लगी क्योकि ये दिखाती है की समस्याएं अपना समाधान खो चुकी है. एक समस्या का समाधान दूसरी समस्या है. राजनीती की बात करे तो मनुष्य के चरित्र को सत्ता के चरित्र ने पीछे छोड़ दिया है.सत्ता पर कोई भी हो, फर्क नहीं पड़ता. कारपोरेट की बात करे बात सिर्फ और सिर्फ लाभ-हानि तक सिमित है. इसमें अगर देश या जनता आड़े आयेंगे तो उन्हें दरकिनार कर दिया जायेगा...अगर नहीं कर पाए तो अपने मुताबिक मोड लिया जायेगा.
फिल्म में जर्नलिज्म को एक तरह से परदे के पीछे ही रहने दिया गया है.
फिल्म एक स्थूल प्रभाव छोडती है. समाधान कुछ भी नहीं है. समस्याए बहुत बड़ी है. और गहरी भी. लेकिन यही सच्चाई भी है. और सच्चाई कड़वी होती है. इसलिए फिल्म भी कड़वी लग सकती है.
अभय देओल अच्छा अभिनय करने के लिए जाने जाते है, इसलिए उनकी तारीफ़ कम होती है. इमरान हाशमी कुछ हटकर आये है,और दुरुस्त भी है. प्रोसेन्न्जित चटर्जी प्रभावित करते है.
1 comment:
kya jaan-boojh kar Journalism ki bhoomika ko hata diya gaya hai ...?
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