Thursday, February 9, 2012

सिस्टम पे तमाचा या सिस्टम का तमाचा !!



इस देश में सिर्फ आम आदमी की ही किस्मत क्यों खराब है? ये सवाल उठाती है फिल्म "गली गली चोर है". फिल्म ने बहुत सही ढंग से आम आदमी का हो रहे शोषण को दिखाया गया है. फिल्म दर्शको को रास नहीं आई शायद इसलिए की इसका अंत फ़िल्मी नहीं है और फिल्म में कोई "स्टार" नहीं है. और फिल्मो की तरह अंत में सब कुछ ठीक नहीं हो जाता है. बेशक कोई और बेहतर अंत हो सकता था. लेकिन फिल्म जिन मुद्दों को उठाती है वो काबिल-इ-तारीफ है.

सबसे पहला मुद्दा तो यह है की भारत जैसे देश में अंध विश्ववास क्यों गहराता जा रहा है. पुलिस, अदालत, चोर, नेता सब से परेशान होने के बाद आम आदमी अपनी किस्मत को दोष देकर तसल्ली कर लेता है. क्युकी वो बेचारा सिस्टम का कुछ बिगाड नहीं सकता. वो अपनी मुलभुत जरूरतों में इस कदर उलझा रहता है की अदालत के चक्कर वो नहीं काटना चाहता. फिल्म बताती है की आम आदमी सबसे ज्यादे खुश तब होता है जब बिना मतलब की विपत्ति से उसको छुटकारा मिल जाता है.

वहीं ये फिल्म कुछ कड़े सवाल भी उठती है. जैसे पुरे पांच सालो तक आफिसो, पान और चाय की दुकानों, और जगह जगह भ्रष्ट नेताओ को गालियाँ देने के बाद पाचवें साल उन्ही भ्रष्ट नेताओ को क्यों जिताती है? और इसका उदहारण भी साफ़ उत्तर प्रदेश के चुनाव में देखा जा सकता है. साल भर अन्ना के साथ भ्रष्टाचार के खिलाफ मोर्चा खोलने वाली जनता को मुद्दों के नाम पर उसकी जातियों की पहचान करा दी जाती है. वहीं कोई ईमानदार छवि का प्रत्याशी निर्दलीय खड़ा होता है तो उसकी जमानत जब्त हो जाती है. कितने ही ऐसे उदहारण है.

फिल्म को न क्रिटिक ने सराहा न ही दर्शकों ने. जो की दुखद है. जनता भी अजीब चीज़ है. यही जनता है जो उ ला ला को गाली भी देती है और फिर सुपर हिट भी करवा देती है जबकि विषय के नाम पर कितनी महिलाओं के दर्द का प्रतिनिधित्व वो करती है सब जानते है. वहीँ जो फिल्म हमारे मूल-भुत समस्याओ को उठा रही है, एक बढ़िया व्यंग दिखाती है, उसे क्रिटिक अपनी क्रिटिकल एंगल की धार से नोंच डालते है. और सही भी है. क्युकी 'बिकती' तो सिर्फ तीन चीजे है- entertainment, entertainment, entertainment. लेकिन ये भी जान लेना जरुरी है की ये बोलने के साथ ही आपको ये अहसास दिला दिया जाता है की आप बाज़ार में है.

फिल्म के अंत में हीरो के माध्यम से पुलिस वाले और नेता को तमाचा मारना एक तरह से सिम्बोलिक है जिसका मतलब आम आदमी का तमाचा सिस्टम के गाल पर से है. पर मुझे वो वाकई में सिस्टम का तमाचा जनता के गाल पर लगता है. हम फिल्मो में अश्लीलता को गाली देते है और उन्ही को देख देख हिट करवाते है. भ्रष्ट नेताओं को गाली देने का एक मौका नहीं चुकते, और उन्ही को वोट देकर फिर से सर पे बिठाते है. और ऐसी ही जनता का फायदा उठाया जाता है फिर तकलीफ क्यों? ये सिस्टम इस तमाचे के साथ हमें बताता है की हम ऐसे ही सिस्टम के लायक है.


2 comments:

Anonymous said...

will have to watch it...but u know what, if the film is good it would pick up eventually. but how come critics did not like it? is it too preaching? becoz, even a good film looses its sheen if it gets too preaching. films like Munnabhai are moral and yet "entertaining..entertaining and...ooo la la ;)

maanas said...

its not at all preaching anything...on the contrary its entertaining containing good sense of satire. and as for as critics are concerned, they are not interested in wasting time to give stars to a non-star movie.